बिगत १० नवम्बर , २००७ को पटना में एक अदभुत घटना घटी | कायस्तों के अदि पुरुष , यमराज के दरबार में सृष्टि के समस्त प्राणियों के पाप- पुण्य का लेखा- जोखा रखने वाले एवं प्राणियों द्वारा पृथ्वी पर किये गये कर्मो का न्याय संगत विचार कर उनके भविष्य का निर्धारण करने वाले भगवान चित्रगुप्त लगभग ५० वर्ष के बाद पटना सिटी के दीवान मोहल्ला स्थित अपने प्राचीन मंदिर में वापस लौट आये |
भगवान यह पुनरअवतरन शायद संयोग मात्र नहीं है, अपितु; इसे संपूर्ण भारतवर्ष ही नहीं बल्कि; विश्वभर के कायस्त समाज के नवजागरण एवं पुनरोत्थान की शुरुआत मानना ही ज्यादा युक्तिसंगत होगा | मंदिर में मूर्ति की पुनरस्थापना के बाद संपुर्ण कायस्त समाज में, विशेष कर युवा वर्ग में जिस प्रकार से नवचेतना का संसार हुआ है, उसे देखकर तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि भगवान चित्रगुप्त अपने वंशजो के ही आर्तनाद से द्रवित होकर पृथ्वी पर स्वयं एक बार पुनः प्रकट हो गये है | पटना के पुराने शहर (पटना शहर) में स्थित कायस्थों कि मशहुर पुरानी बस्ती दीवान मोहल्ला में स्थित श्री चित्रगुप्त अदि मंदिर, गंगा के सुरम्य दक्षीणी तट पर पटना को उत्तरी बिहार से जोड़ने वाले भारतवर्ष के सर्वाधिक लम्बे गंगा पुल (५.८ किलोमीटर) के गाय घाट स्थित दक्षीणी छोर से लगभग एक किलोमीटर पूरब में गंगा के किनारे स्थित है | मंदिर के बगल में ही सूफी संत नौजर शाह का मकबरा भी है, जिसकी वजह से इस घाट को नौजर घाट के नाम से भी जाना जाता है | नौजर घाट या चित्रगुप्त घाट एक अति प्राचीन घाट है |
बिहार के अवकाश प्राप्त पुरातत्व निर्देसक डॉ. प्रकाश चरण प्रसाद के अनुसार गंगा का यह घाट प्रागौतिहासिक है | विभिन्न रामायणों में उपलब्ध वर्णनों के आधार पर यह कहा जाता है कि भगवान अपने अनुज लक्ष्मण एवं महर्षि विश्वामित्र के साथ बक्सर में ताड़का वध करने के उपरांत राजा जनक के द्वारा भेजे गये स्वयंवर के आमंत्रण पर जब जानपुर कि ओर चलें तो गंगा कि दक्षीणी तट के किनारे चलते – चलते पटना आये और इस ऐतिहासिक घाट से नाव द्वारा गंगा पार कर जनकपुर की ओर बढ़े | बताते है कि तब तक आतंक का पर्याय बनी राक्षसी तड़का के संहारक के रूप में भगवान कि ख्याति फ़ैल चुकी थी और जब उन्होंने चित्रगुप्त घाट से गंगा पर कर चित्रसेंपुर नामक गाँव में पैर रखा, तब वहाँ के ग्रामीणों ने अवध के पराक्रमी राजकुमारों एवं महर्षि विश्वामित्र कि आरती उतारी एवं एह शिला पर भगवान राम के चरण चिन्ह प्राप्त कर उसे मंदिर के रूप में स्थापित किया, जिसकी पूजा वहाँ आज भी होती है | वैसे भी, इच्छबाकु बंश के सूर्यवंशी राजाओं के पदचिन्ह लेकर उसकी पूजा करने कि परम्परा बैदिक काल से चली आ रही है | बताते हैं कि बाद में गंगा पार कर भगवान बुद्ध ने भी इसी ऐतिहासिक चित्रगुप्त घाट से पाटलिपुत्र में प्रवेश किया और बोध गया में जाकर परम ज्ञान कि प्राप्ति कि तथा पाटलिपुत्र को ही केन्द्र बनाकर पुरे विश्व में बौद्ध दर्शन प्राचर – प्रसार किया | ईसा के ४०० वर्ष पूर्व मगध कि राजधानी पाटलिपुत्र पार नन्दबंस का शासन था जिसके महामात्य शतक दास उर्फ़ शटकारी थे जो बाद में मुद्राराक्षस के नाम से जाने गए | मुद्राराक्षस कायस्त जाती के थे एवं उनकी ख्याति भारतीय इतिहास में एक अत्यन्त कुसल एवं दक्ष प्रसासक, महहन न्यायविद , प्रकांड विद्वान एवं निष्ठावान कर्मकांडी के रूप में विश्वविख्यात है | महामात्य मुद्राराक्षस कि चर्चा इतिहास के अतिरिक्त पौराणिक ग्रंथों मे भी विशेष रूप से आती है |
महामात्य मुद्राराक्षस ने नन्दवंश कि तीन पुश्तों के राजाओं के साथ प्रधान मंत्री का कार्य किया और लगभग ५० वर्ष तक नन्दवंश के महामात्य के रूप में मगध साम्राज्य पर शासन किया | ईसा के ३६४ वर्ष पूर्व जब चन्द्र गुप्त मौर्य ने महापदमनन्द को पराजित कर मौर्यवंश कि स्थापना कि, तब अपने गुरु कूटनीतिज्ञं कौटिल्य (पंडित चाणक्य) कि आज्ञा से चन्द्रगुप्त मौर्य ने महापदमनन्द को पराजित कर नन्दवंश के महामात्य मुद्राराक्षस को ही सम्मान पूर्वक महामात्य नियुक्त किया और मुद्राराक्षस ने जीवन – पर्यन्त मौयवंश का शासन चलाया | यह विश्व के इतिहास में एक मात्र उदहारण है कि सक्षम प्रशासन के गुणों का कायल हो कर किसी विजय राजा ने किसी पराजित राजा के महामात्य को अपने साम्राज्य कि बागडोर सौंप दी हो | मुद्राराक्षस कि मृत्यु ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार ८८ वर्ष कि आयु में हुई थी और अपने जीवन के अंत तक उन्होंने महामात्य के रूप में राजकीय कार्य किये थे |
चित्रगुप्त मौर्य ने मुद्राराक्षस को महामात्य कैसे बनाया , इसका भी एक अत्यन्त ही दिलसस्प प्रसंग प्रचलित हो | कहते हैं कि महापदमनन्द के पराजय के बाद चित्रगुप्त ने ४० दिनों के राजकीय जश्न का ऐलान कर दिया था | देस के विभिन्न भागों से नर्तकियाँ बुलाई गयी थी जिससे मशहुर बसरे (वर्तमान में इराक ) कि हरें (सुन्दर नर्तकियाँ ) भी शामिल थीं | ४० दिनों का जश्न चलता रहा | जब सम्राट चित्रगुप्त कि खुमारी टूटी , तब उसने देखा कि गुरु कौटिल्य (चाणक्य) कही दिख नहीं रहे | उसने दरबारियों से पूछा, “गुरूजी कहां हैं ?” उत्तर मिला कि वे तो राज्याअभिषेक के दुसरे ही दिन गंगा के तट पर चले गायें और पर्ण कुटी (कुसा पास के तिनकों बनाई झोपडी) बनाकर गंगा तट पर रह रहे हैं | चन्द्रगुप्त ने सोचा कि गुरु जी नाराज हो गये | अतः तत्काल घोड़े कि पीठ पर सवार हो कर गंगा किनारे गया और चाणक्य कि पूर्ण कुटी ढुंढ कर वहाँ पहुँच कर साष्टांग प्रणाम करने के बाद उसने कहा – ” गुरूजी क्षमा कीजियेगा | मैं राजकीय जश्न में इतना डूब गया कि आप का ध्यान ही नहीं रहा | मुझे आपने किये पर आपर दुःख और ग्लानी हो रही है | मैं आप से करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि मुझे माफ़ कर दीजिये और कृपया राजभवन वापस चलकर महामात्य का कार्यभार संभालें |” चाणक्य ने मुस्कराते हुए चन्द्रगुप्त को गले लगाया और कहा -“वत्स मैं तुमसे कतई नाराज नहीं हूँ | दुष्ट महापदमनन्द के नाश के बाद यह स्वाभाविक ही था कि तुम राजकीय जशन आयोजित करते | नन्दवंश के नाश के बाद मेरी प्रतिज्ञा तो पूरी हो गयी है | अब मैंने अपने चोटी भी बांध ली है और गंगा के किनारे पूर्ण कुटी बनाकर रहने लगा हूँ, जो कि चिन्तन, मनन और साधना के लिये अति उपयुक्त स्थान है | अतः अब तो जीवन पर्यन्त यहीं रहने कि इच्छा है |” जब चन्द्रगुप्त ने बहुत ही अनुनय विनय किया तब चाणक्य ने कहा -” हे सम्राट चन्द्रगुप्त ! मैं एक कुटिल ब्राहमण हूँ | महापदमनन्द द्वारा किये गये अपने अपमान के प्रतिशोध में मैं अपनी कूटनीति से तुम्हे मगध का चक्रवर्ती सम्राट तो बना सकता हूँ किन्तु प्रशासन संभाने और चलने कि क्षमता मुझमे नहीं हैं |” चन्द्रगुप्त ने कहा -” है गुरुदेव अपने तो मुझे मात्र अस्त्र शस्त्र चलाने और घुड़सवारी के अलावा कुछ सिखाया ही नहीं | मैं प्रशासन कैसे चलाऊंगा ? अब आप ही मार्गदर्शन कीजिये |” तब चाणक्य ने कहा, “प्रशासन कार्य कयोस्थों का काम हैं किसी योग्य कायस्थ को ढुंढ कर ले आओ और महामात्य बना दो | कयोस्थों के रक्त में ही प्रशासन के गुण होते है | वे हीं दक्षता और ईमानदारी से प्रशासन चला सकता हैं |” इसपर चन्द्रगुप्त ने कहा, ” मैं ढुंढ तो दूँ, लेकिन, तुमको पहले वचन देना पड़ेगा कि तुम मेरी बात को मानोगे |” चन्द्रगुप्त ने कहा, “भगवान ! आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं कि मैं आप कि आज्ञा कि अवहेलना कर दुंगा | मेरा तो तन मन और धन सब आप ही का है | तब चाणक्य ने कहा कि ” है वत्स महापदम नन्द कि महामात्य शाटक दास यानि शत्कारी अदभुत क्षमताओं का स्वामी, परमगुणी, विदुर, चतुर, कुशल प्रसासक तथा मायावी राक्षसों कि जैसी कार्य क्षमता का धनी है |इसी लिये में उसे राक्षस कहकर पुकारता हूँ | राक्षस अभी तुम्हारे सैनिको से छिपकर कहीं जंगलों में भटक रहा होगा | उसे क्षमा दान कर दो और स-सम्मान लाकर मगध की साम्राज्य चन्द्रगुप्त की बागडोर सौंप दो |” मुद्राराक्षस का नाम सुनते ही सम्राट चन्द्रगुप्त की भौंहें तन गई और एक झटके में ही उसने म्यान से तलवार बाहर निकालते हुए कहा – “मुद्राराक्षस! कहां है अब, मैंने तो उसे जीवित या मृत्त प्रस्तुत करने वाले को १००० स्बर्ण मुद्राओं का ईनाम घोषित कर रखा हैं | मैं उसे महामात्य कैसे बना सकता हूँ ?” चाणक्य ने हंसते हुए कहा- “हे वत्स, मैं तुम्हारी भावनाओं से परिचित था | इसीलिए पहले वचन ले लिया था | उसके बाद जब चन्द्रगुप्त ने अपनी गलती का एहसास कर मुद्राराक्षस को जीवन दान देकर महामात्य के पद पर नियुक्त करने का निर्णय ले लिया , तब चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से दो वचन और माँग लियें | पहला यह की चन्द्रगुप्त मात्र नितिगत निर्णय लेगा और प्रशासन कार्य में कोई दिन प्रतिदिन की दखलन्दाजी नहीं करेगा और सत्कारी यानि राक्षस को मात्र यह बतायेगा की उसका अंतिम लक्ष्य क्या है | लक्ष्य की प्राप्ति कैसे करेगा उसका निर्णय वह अपने महामात्य मुद्राराक्षस के विवेक पर छोड़ देगा तभी प्रशासन सुचारू रूप से चल सकेगा |